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अय्यूब : काश मैं अल्लाह को कहीं पाता
1 अय्यूब ने जवाब में कहा,
2 “बेशक आज मेरी शिकायत सरकशी का इज़हार है, हालाँकि मैं अपनी आहों पर क़ाबू पाने की कोशिश कर रहा हूँ।
3 काश मैं उसे पाने का इल्म रखूँ ताकि उस की सुकूनतगाह तक पहुँच सकूँ। 4 फिर मैं अपना मामला तरतीबवार उसके सामने पेश करता, मैं अपना मुँह दलायल से भर लेता। 5 तब मुझे उसके जवाबों का पता चलता, मैं उसके बयानात पर ग़ौर कर सकता। 6 क्या वह अपनी अज़ीम क़ुव्वत मुझसे लड़ने पर सर्फ़ करता? हरगिज़ नहीं! वह यक़ीनन मुझ पर तवज्जुह देता। 7 अगर मैं वहाँ उसके हुज़ूर आ सकता तो दियानतदार आदमी की तरह उसके साथ मुक़दमा लड़ता। तब मैं हमेशा के लिए अपने मुंसिफ़ से बच निकलता!
8 लेकिन अफ़सोस, अगर मैं मशरिक़ की तरफ़ जाऊँ तो वह वहाँ नहीं होता, मग़रिब की जानिब बढ़ूँ तो वहाँ भी नहीं मिलता। 9 शिमाल मैं उसे ढूँडूँ तो वह दिखाई नहीं देता, जुनूब की तरफ़ रुख़ करूँ तो वहाँ भी पोशीदा रहता है। 10 क्योंकि वह मेरी राह को जानता है। अगर वह मेरी जाँच-पड़ताल करता तो मैं ख़ालिस सोना साबित होता। 11 मेरे क़दम उस की राह में रहे हैं, मैं राह से न बाईं, न दाईं तरफ़ हटा बल्कि सीधा उस पर चलता रहा। 12 मैं उसके होंटों के फ़रमान से बाज़ नहीं आया बल्कि अपने दिल में ही उसके मुँह की बातें महफ़ूज़ रखी हैं।
13 अगर वह फ़ैसला करे तो कौन उसे रोक सकता है? जो कुछ भी वह करना चाहे उसे अमल में लाता है। 14 जो भी मनसूबा उसने मेरे लिए बाँधा उसे वह ज़रूर पूरा करेगा। और उसके ज़हन में मज़ीद बहुत-से ऐसे मनसूबे हैं। 15 इसी लिए मैं उसके हुज़ूर दहशतज़दा हूँ। जब भी मैं इन बातों पर ध्यान दूँ तो उससे डरता हूँ। 16 अल्लाह ने ख़ुद मुझे शिकस्तादिल किया, क़ादिरे-मुतलक़ ही ने मुझे दहशत खिलाई है। 17 क्योंकि न मैं तारीकी से तबाह हो रहा हूँ, न इसलिए कि घने अंधेरे ने मेरे चेहरे को ढाँप दिया है।