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1 तो क्या यहूदी होने का या ख़तना का कोई फ़ायदा है? 2 जी हाँ, हर तरह का! अव्वल तो यह कि अल्लाह का कलाम उनके सुपुर्द किया गया है। 3 अगर उनमें से बाज़ बेवफ़ा निकले तो क्या हुआ? क्या इससे अल्लाह की वफ़ादारी भी ख़त्म हो जाएगी? 4 कभी नहीं! लाज़िम है कि अल्लाह सच्चा ठहरे गो हर इनसान झूटा है। यों कलामे-मुक़द्दस में लिखा है, “लाज़िम है कि तू बोलते वक़्त रास्त ठहरे और अदालत करते वक़्त ग़ालिब आए।”
5 कोई कह सकता है, “हमारी नारास्ती का एक अच्छा मक़सद होता है, क्योंकि इससे लोगों पर अल्लाह की रास्ती ज़ाहिर होती है। तो क्या अल्लाह बेइनसाफ़ नहीं होगा अगर वह अपना ग़ज़ब हम पर नाज़िल करे?” (मैं इनसानी ख़याल पेश कर रहा हूँ)। 6 हरगिज़ नहीं! अगर अल्लाह रास्त न होता तो फिर वह दुनिया की अदालत किस तरह कर सकता?
7 शायद कोई और एतराज़ करे, “अगर मेरा झूट अल्लाह की सच्चाई को कसरत से नुमायाँ करता है और यों उसका जलाल बढ़ता है तो वह मुझे क्योंकर गुनाहगार क़रार दे सकता है?” 8 कुछ लोग हम पर यह कुफ़र भी बकते हैं कि हम कहते हैं, “आओ, हम बुराई करें ताकि भलाई निकले।” इनसाफ़ का तक़ाज़ा है कि ऐसे लोगों को मुजरिम ठहराया जाए।
कोई रास्तबाज़ नहीं
9 अब हम क्या कहें? क्या हम यहूदी दूसरों से बरतर हैं? बिलकुल नहीं। हम तो पहले ही यह इलज़ाम लगा चुके हैं कि यहूदी और यूनानी सब ही गुनाह के क़ब्ज़े में हैं। 10 कलामे-मुक़द्दस में यों लिखा है,
“कोई नहीं जो रास्तबाज़ है, एक भी नहीं।
11 कोई नहीं जो समझदार है,
कोई नहीं जो अल्लाह का तालिब है।
12 अफ़सोस, सब सहीह राह से भटक गए,
सबके सब बिगड़ गए हैं।
कोई नहीं जो भलाई करता हो, एक भी नहीं।
13 उनका गला खुली क़ब्र है,
उनकी ज़बान फ़रेब देती है।
उनके होंटों में साँप का ज़हर है।
14 उनका मुँह लानत और कड़वाहट से भरा है।
15 उनके पाँव ख़ून बहाने के लिए जल्दी करते हैं।
16 अपने पीछे वह तबाहीओ-बरबादी छोड़ जाते हैं,
17 और वह सलामती की राह नहीं जानते।
18 उनकी आँखों के सामने ख़ुदा का ख़ौफ़ नहीं होता।”
19 अब हम जानते हैं कि शरीअत जो कुछ फ़रमाती है उन्हें फ़रमाती है जिनके सुपुर्द वह की गई है। मक़सद यह है कि हर इनसान के बहाने ख़त्म किए जाएँ और तमाम दुनिया अल्लाह के सामने मुजरिम ठहरे। 20 क्योंकि शरीअत के तक़ाज़े पूरे करने से कोई भी उसके सामने रास्तबाज़ नहीं ठहर सकता, बल्कि शरीअत का काम यह है कि हमारे अंदर गुनाहगार होने का एहसास पैदा करे।
रास्तबाज़ होने के लिए ईमान ज़रूरी है
21 लेकिन अब अल्लाह ने हम पर एक राह का इनकिशाफ़ किया है जिससे हम शरीअत के बग़ैर ही उसके सामने रास्तबाज़ ठहर सकते हैं। तौरेत और नबियों के सहीफ़े भी इसकी तसदीक़ करते हैं। 22 राह यह है कि जब हम ईसा मसीह पर ईमान लाते हैं तो अल्लाह हमें रास्तबाज़ क़रार देता है। और यह राह सबके लिए है। क्योंकि कोई भी फ़रक़ नहीं, 23 सबने गुनाह किया, सब अल्लाह के उस जलाल से महरूम हैं जिसका वह तक़ाज़ा करता है, 24 और सब मुफ़्त में अल्लाह के फ़ज़ल ही से रास्तबाज़ ठहराए जाते हैं, उस फ़िदिये के वसीले से जो मसीह ईसा ने दिया। 25 क्योंकि अल्लाह ने ईसा को उसके ख़ून के बाइस कफ़्फ़ारा का वसीला बनाकर पेश किया, ऐसा कफ़्फ़ारा जिससे ईमान लानेवालों को गुनाहों की मुआफ़ी मिलती है। यों अल्लाह ने अपनी रास्ती ज़ाहिर की, पहले माज़ी में जब वह अपने सब्रो-तहम्मुल में गुनाहों की सज़ा देने से बाज़ रहा 26 और अब मौजूदा ज़माने में भी। इससे वह ज़ाहिर करता है कि वह रास्त है और हर एक को रास्तबाज़ ठहराता है जो ईसा पर ईमान लाया है।
27 अब हमारा फ़ख़र कहाँ रहा? उसे तो ख़त्म कर दिया गया है। किस शरीअत से? क्या आमाल की शरीअत से? नहीं, बल्कि ईमान की शरीअत से। 28 क्योंकि हम कहते हैं कि इनसान को ईमान से रास्तबाज़ ठहराया जाता है, न कि आमाल से। 29 क्या अल्लाह सिर्फ़ यहूदियों का ख़ुदा है? ग़ैरयहूदियों का नहीं? हाँ, ग़ैरयहूदियों का भी है। 30 क्योंकि अल्लाह एक ही है जो मख़तून और नामख़तून दोनों को ईमान ही से रास्तबाज़ ठहराएगा। 31 फिर क्या हम शरीअत को ईमान से मनसूख़ करते हैं? हरगिज़ नहीं, बल्कि हम शरीअत को क़ायम रखते हैं।