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याक़ूब को दफ़न किया जाता है
1 यूसुफ़ अपने बाप के चेहरे से लिपट गया। उसने रोते हुए उसे बोसा दिया। 2 उसके मुलाज़िमों में से कुछ डाक्टर थे। उसने उन्हें हिदायत दी कि मेरे बाप इसराईल की लाश को हनूत करें ताकि वह गल न जाए। उन्होंने ऐसा ही किया। 3 इसमें 40 दिन लग गए। आम तौर पर हनूत करने के लिए इतने ही दिन लगते हैं। मिसरियों ने 70 दिन तक याक़ूब का मातम किया।
4 जब मातम का वक़्त ख़त्म हुआ तो यूसुफ़ ने बादशाह के दरबारियों से कहा, “मेहरबानी करके यह ख़बर बादशाह तक पहुँचा दें 5 कि मेरे बाप ने मुझे क़सम दिलाकर कहा था, ‘मैं मरनेवाला हूँ। मुझे उस क़ब्र में दफ़न करना जो मैंने मुल्के-कनान में अपने लिए बनवाई।’ अब मुझे इजाज़त दें कि मैं वहाँ जाऊँ और अपने बाप को दफ़न करके वापस आऊँ।” 6 फ़िरौन ने जवाब दिया, “जा, अपने बाप को दफ़न कर जिस तरह उसने तुझे क़सम दिलाई थी।”
7 चुनाँचे यूसुफ़ अपने बाप को दफ़नाने के लिए कनान रवाना हुआ। बादशाह के तमाम मुलाज़िम, महल के बुज़ुर्ग और पूरे मिसर के बुज़ुर्ग उसके साथ थे। 8 यूसुफ़ के घराने के अफ़राद, उसके भाई और उसके बाप के घराने के लोग भी साथ गए। सिर्फ़ उनके बच्चे, उनकी भेड़-बकरियाँ और गाय-बैल जुशन में रहे। 9 रथ और घुड़सवार भी साथ गए। सब मिलकर बड़ा लशकर बन गए।
10 जब वह यरदन के क़रीब अतद के खलियान पर पहुँचे तो उन्होंने निहायत दिलसोज़ नोहा किया। वहाँ यूसुफ़ ने सात दिन तक अपने बाप का मातम किया। 11 जब मक़ामी कनानियों ने अतद के खलियान पर मातम का यह नज़ारा देखा तो उन्होंने कहा, “यह तो मातम का बहुत बड़ा इंतज़ाम है जो मिसरी करवा रहे हैं।” इसलिए उस जगह का नाम अबील-मिसरीम यानी ‘मिसरियों का मातम’ पड़ गया। 12 यों याक़ूब के बेटों ने अपने बाप का हुक्म पूरा किया। 13 उन्होंने उसे मुल्के-कनान में ले जाकर मकफ़ीला के खेत के ग़ार में दफ़न किया जो ममरे के मशरिक़ में है। यह वही खेत है जो इब्राहीम ने इफ़रोन हित्ती से अपने लोगों को दफ़नाने के लिए ख़रीदा था।
14 इसके बाद यूसुफ़, उसके भाई और बाक़ी तमाम लोग जो जनाज़े के लिए साथ गए थे मिसर को लौट आए।
यूसुफ़ अपने भाइयों को तसल्ली देता है
15 जब याक़ूब इंतक़ाल कर गया तो यूसुफ़ के भाई डर गए। उन्होंने कहा, “ख़तरा है कि अब यूसुफ़ हमारा ताक़्क़ुब करके उस ग़लत काम का बदला ले जो हमने उसके साथ किया था। फिर क्या होगा?” 16 यह सोचकर उन्होंने यूसुफ़ को ख़बर भेजी, “आपके बाप ने मरने से पेशतर हिदायत दी 17 कि यूसुफ़ को बताना, ‘अपने भाइयों के उस ग़लत काम को मुआफ़ कर देना जो उन्होंने तुम्हारे साथ किया।’ अब हमें जो आपके बाप के ख़ुदा के पैरोकार हैं मुआफ़ कर दें।”
यह ख़बर सुनकर यूसुफ़ रो पड़ा। 18 फिर उसके भाई ख़ुद आए और उसके सामने गिर गए। उन्होंने कहा, “हम आपके ख़ादिम हैं।” 19 लेकिन यूसुफ़ ने कहा, “मत डरो। क्या मैं अल्लाह की जगह हूँ? हरगिज़ नहीं! 20 तुमने मुझे नुक़सान पहुँचाने का इरादा किया था, लेकिन अल्लाह ने उससे भलाई पैदा की। और अब इसका मक़सद पूरा हो रहा है। बहुत-से लोग मौत से बच रहे हैं। 21 चुनाँचे अब डरने की ज़रूरत नहीं है। मैं तुम्हें और तुम्हारे बच्चों को ख़ुराक मुहैया करता रहूँगा।”
यों यूसुफ़ ने उन्हें तसल्ली दी और उनसे नरमी से बात की।
यूसुफ़ का इंतक़ाल
22 यूसुफ़ अपने बाप के ख़ानदान समेत मिसर में रहा। वह 110 साल ज़िंदा रहा। 23 मौत से पहले उसने न सिर्फ़ इफ़राईम के बच्चों को बल्कि उसके पोतों को भी देखा। मनस्सी के बेटे मकीर के बच्चे भी उस की मौजूदगी में पैदा होकर उस की गोद में रखे गए। *ग़ालिबन इसका मतलब यह है कि उसने उन्हें लेपालक बनाया।
24 फिर एक वक़्त आया कि यूसुफ़ ने अपने भाइयों से कहा, “मैं मरनेवाला हूँ। लेकिन अल्लाह ज़रूर आपकी देख-भाल करके आपको इस मुल्क से उस मुल्क में ले जाएगा जिसका उसने इब्राहीम, इसहाक़ और याक़ूब से क़सम खाकर वादा किया है।” 25 फिर यूसुफ़ ने इसराईलियों को क़सम दिलाकर कहा, “अल्लाह यक़ीनन तुम्हारी देख-भाल करके वहाँ ले जाएगा। उस वक़्त मेरी हड्डियों को भी उठाकर साथ ले जाना।”
26 फिर यूसुफ़ फ़ौत हो गया। वह 110 साल का था। उसे हनूत करके मिसर में एक ताबूत में रखा गया।